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“अजनबियों पर कृपा करना मत भूलना”

“अजनबियों पर कृपा करना मत भूलना”

“अजनबियों पर कृपा करना मत भूलना।”—इब्रा. 13:2, एन.डब्ल्यू., फुटनोट।

गीत: 53, 50

1, 2. (क) आज कई विदेशियों को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है? (लेख की शुरूआत में दी तसवीर देखिए।) (ख) बाइबल में हमें क्या बढ़ावा दिया गया है? (ग) हम किन सवालों पर गौर करेंगे?

घाना का रहनेवाला ओसा करीब 30 साल पहले यूरोप आया था। [1] उस वक्‍त वह यहोवा का साक्षी नहीं था। वह कहता है, “यहाँ पहुँचने के फौरन बाद मैं समझ गया कि यहाँ के ज़्यादातर लोगों को मेरी कोई परवाह नहीं। यहाँ का मौसम भी बहुत अलग था। हवाई अड्डे से बाहर निकलते ही मैंने ज़िंदगी में पहली बार कड़ाके की ठंड महसूस की। यह सब देखकर मुझसे रहा नहीं गया और मैं रो पड़ा।” ओसा को वहाँ की भाषा सीखने में काफी परेशानी हुई, इसलिए एक साल तक अच्छी नौकरी ढूँढ़ने में उसे बहुत दिक्कत हुई। परिवार से दूर वह खुद को एकदम अकेला महसूस करने लगा और उसे घर की याद सताने लगी।

2 ज़रा सोचिए, अगर आप ओसा की जगह होते तो आप लोगों से क्या उम्मीद करते कि वे आपके साथ कैसे पेश आएँ? जब आप राज-घर जाते हैं तो क्या आप यह उम्मीद नहीं करते कि भाई-बहन आपका प्यार से स्वागत करें, फिर चाहे आप किसी भी देश से हों या आपका रंग जैसा भी हो? बाइबल में सच्चे मसीहियों को यह बढ़ावा दिया गया है, “अजनबियों पर कृपा करना मत भूलना।” (इब्रा. 13:2, एन.डब्ल्यू., फुटनोट) इसलिए आइए हम इन सवालों पर गौर करें: यहोवा अजनबियों को किस नज़र से देखता है? क्या हमें उनके बारे में अपना नज़रिया बदलने की ज़रूरत है? हम दूसरे देश या दूसरी जगह से आए लोगों की मदद कैसे कर सकते हैं ताकि वे हमारी मंडली में प्यार और अपनापन महसूस करें?

यहोवा अजनबियों को किस नज़र से देखता है?

3, 4. निर्गमन 23:9 के मुताबिक, परमेश्वर के लोगों को परदेसियों के साथ कैसे पेश आना था और क्यों?

3 यहोवा ने जब अपने लोगों यानी इसराएलियों को मिस्र से निकाला तो बहुत-से दूसरे लोग भी उनके साथ मिल गए थे। इसलिए यहोवा ने इसराएलियों को कुछ नियम दिए जिनमें यह बताया गया कि उन्हें इन परदेसियों पर कृपा करना है। (निर्ग. 12:38, 49; 22:21) यहोवा जानता था कि परदेसी की ज़िंदगी जीना आसान नहीं, इसलिए उसने इन परदेसियों के लिए कई प्यार-भरे इंतज़ाम किए। उनमें से एक था कि खेत में कटाई करनेवाले जो बालें छोड़ जाते थे उन्हें वे बटोर सकते थे।—लैव्य. 19:9, 10.

4 यहोवा चाहता तो इसराएलियों को हुक्म दे सकता था कि वे परदेसियों का आदर करें। मगर उसने ऐसा नहीं किया। इसके बजाय, वह चाहता था कि इसराएली याद रखें कि एक वक्‍त पर वे भी परदेसी थे। (निर्गमन 23:9 पढ़िए।) जब वे मिस्र में गुलाम भी नहीं थे तब से वहाँ के लोग उनसे नफरत करते थे क्योंकि वे उनसे बहुत अलग थे। (उत्प. 43:32; 46:34; निर्ग. 1:11-14) हालाँकि इसराएलियों को परदेसी की ज़िंदगी बितानी पड़ी और कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा, फिर भी यहोवा चाहता था कि वे परदेसियों पर कृपा करें।—लैव्य. 19:33, 34.

5. यहोवा की तरह हम विदेश से आए लोगों की परवाह कैसे कर सकते हैं?

5 यहोवा बदला नहीं है। आज भी वह उन विदेशियों की परवाह करता है जो हमारी मंडली में आते हैं। (व्यव. 10:17-19; मला. 3:5, 6) यहोवा की तरह हम उनकी परवाह कैसे कर सकते हैं? इन विदेशियों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जैसे उनके साथ भेदभाव होता है या फिर उन्हें भाषा ठीक से नहीं आती। ज़रा रुककर उनकी चुनौतियों के बारे में सोचिए तब आप उनका दर्द महसूस कर पाएँगे। इसलिए आइए हम उन पर कृपा करने और उनकी मदद करने में मेहनत करें।—1 पत. 3:8.

क्या हमें अजनबियों के बारे में अपना नज़रिया बदलने की ज़रूरत है?

6, 7. क्या बात दिखाती है कि यहूदी मसीही भेदभाव की भावना को जड़ से उखाड़ पाए?

6 पहली सदी में यहूदी लोगों में भेदभाव की भावना अंदर तक समायी हुई थी। इसलिए जब कुछ यहूदी मसीही बने तो उन्हें यह भावना जड़ से उखाड़नी पड़ी। ईसवी सन्‌ 33 के पिन्तेकुस्त के दिन जब अलग-अलग देश से आए लोग नए-नए मसीही बने तो यरूशलेम के मसीहियों ने उनकी मेहमान-नवाज़ी की। (प्रेषि. 2:5, 44-47) इन यहूदी मसीहियों ने जिस तरह अपने नए भाई-बहनों के लिए परवाह दिखायी, उससे पता चलता है कि उन्होंने शब्द “मेहमान-नवाज़ी” का मतलब अच्छी तरह समझा और वह है “अजनबियों पर कृपा करना।”

7 मगर उसी दौरान एक मसला उठा। यूनानी बोलनेवाले यहूदियों ने शिकायत की कि खाने के बँटवारे में उनकी विधवाओं को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है। (प्रेषि. 6:1) इसलिए प्रेषितों ने सात आदमियों को चुना और उन्हें यह ध्यान रखने की हिदायत दी कि खाने के बँटवारे में किसी को नज़रअंदाज़ न किया जाए। प्रेषितों ने ऐसे आदमियों को चुना जिनके यूनानी नाम थे। उन्होंने शायद ऐसा इसलिए किया ताकि उन विधवाओं को तसल्ली मिले जिन्हें ठेस पहुँची थी।—प्रेषि. 6:2-6.

8, 9. (क) हममें भेदभाव की भावना है या नहीं, यह पता लगाने के लिए हम खुद से क्या पूछ सकते हैं? (ख) हमें अपने दिल से कौन-सी भावना को पूरी तरह मिटाना चाहिए? (1 पत. 1:22)

8 चाहे हमें एहसास हो या न हो, हम सब पर हमारी संस्कृति का गहरा असर होता है। (रोमि. 12:2) इसके अलावा, हम शायद अपने पड़ोसियों, साथ काम करनेवालों या स्कूल के साथियों को दूसरे देश, जगह, जाति या रंग के लोगों के बारे में बुरी-बुरी बातें कहते सुनें। क्या हम इन बातों का खुद पर इस हद तक असर होने देते हैं कि ये हमारे दिल में बैठ जाएँ? दूसरी तरफ, जब कोई हमारे देश, जाति या हमारी संस्कृति की किसी बात को लेकर मज़ाक उड़ाता है तो हम कैसे पेश आते हैं?

9 एक वक्‍त था जब प्रेषित पतरस के मन में भी भेदभाव की भावना थी। वह उन लोगों से नफरत करता था जो यहूदी नहीं थे। मगर उसने धीरे-धीरे सीखा कि कैसे उसे अपने दिल से इस बुरी भावना को निकालना है। (प्रेषि. 10:28, 34, 35; गला. 2:11-14) उसी तरह, अगर हमारे दिल में ज़रा भी भेदभाव की भावना है या हमें अपनी जाति पर घमंड है, तो हमें उसे पूरी तरह निकालने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए। (1 पतरस 1:22 पढ़िए।) क्या बात हमारी मदद कर सकती है? याद रखिए कि हम चाहे किसी भी देश या जाति के हों, हम सब पापी हैं और इस वजह से हममें से कोई भी उद्धार पाने के लायक नहीं है। (रोमि. 3:9, 10, 21-24) इसलिए खुद को दूसरों से बड़ा समझने की हमारे पास कोई वजह नहीं है! (1 कुरिं. 4:7) हमें प्रेषित पौलुस के जैसा नज़रिया रखना चाहिए। उसने अपने मसीही भाई-बहनों से कहा कि वे ‘अब अजनबी और परदेसी नहीं रहे बल्कि परमेश्वर के घराने के सदस्य हैं।’ (इफि. 2:19) हम सभी को भेदभाव की भावना मिटाने के लिए पुरज़ोर कोशिश करनी चाहिए ताकि हम नयी शख्सियत पहन सकें।—कुलु. 3:10, 11.

अजनबियों पर कैसे कृपा करें?

10, 11. बोअज़ ने कैसे दिखाया कि अजनबियों के बारे में उसका नज़रिया यहोवा जैसा था?

10 यहोवा के वफादार सेवक बोअज़ ने दिखाया कि अजनबियों के बारे में उसका नज़रिया यहोवा जैसा है। वह कैसे? कटाई के समय जब बोअज़ अपने खेतों में आया तो उसकी नज़र रूत पर पड़ी जो दूसरे देश, मोआब से आयी थी। रूत ज़मीन पर पड़ी बालें बीनने में बहुत मेहनत कर रही थी। हालाँकि मूसा के कानून के मुताबिक रूत को बालें बीनने का पूरा हक था, फिर भी उसने ऐसा करने की इजाज़त माँगी। जब बोअज़ को यह बात पता चली तो उसने अपने आदमियों से कहा कि वे गट्ठरों से भी कुछ बालें गिरा दें ताकि वह उन्हें बीन सके।—रूत 2:5-7, 15, 16 पढ़िए।

11 इसके बाद जो हुआ उससे साफ पता चलता है कि बोअज़ को रूत की चिंता थी और वह समझता था कि एक परदेसी को किन मुश्किल हालात का सामना करना पड़ता है। बोअज़ ने रूत से कहा कि वह उसके खेत में काम करनेवाली औरतों के साथ ही रहे ताकि जो आदमी खेत में काम कर रहे हैं वे उसे परेशान न करें। उसने इस बात का भी ध्यान रखा कि रूत को खाना और पानी मिले, जैसे दिहाड़ी के मज़दूरों को मिलता है। जी हाँ, बोअज़ ने उस गरीब परदेसी का आदर किया और उसकी हिम्मत बढ़ायी।—रूत 2:8-10, 13, 14.

12. अगर हम दूसरे देश या जगह से आए लोगों पर कृपा करेंगे तो इसका क्या असर होगा?

12 बोअज़ ने रूत पर कृपा सिर्फ इसलिए नहीं की क्योंकि उसने अपनी सास के लिए अटल प्यार ज़ाहिर किया, बल्कि इसलिए भी की क्योंकि उसने यहोवा की सेवा करने का फैसला किया और हिफाज़त के लिए उस पर आस लगायी। बोअज़ ने रूत पर जो कृपा की वह यहोवा के अटल प्यार का ही सबूत था। (रूत 2:12, 20; नीति. 19:17) उसी तरह, अगर हम “सब किस्म के लोगों” पर कृपा करेंगे तो वे सच्चाई सीखने के लिए राज़ी होंगे और यह महसूस कर पाएँगे कि यहोवा उनसे कितना प्यार करता है।—1 तीमु. 2:3, 4.

क्या हम राज-घर में नए लोगों का गर्मजोशी से स्वागत करते हैं? (पैराग्राफ 13, 14 देखिए)

13, 14. (क) जब कोई अजनबी राज-घर में आता है तो हमें क्यों उससे मिलने के लिए पहल करनी चाहिए? (ख) अगर हमें दूसरी संस्कृति के लोगों से बात करना अजीब लगे तो हम क्या कर सकते हैं?

13 जब दूसरे देश या दूसरी जगह के लोग पहली बार हमारे राज-घर आते हैं तो हम उन पर कैसे कृपा कर सकते हैं? एक तरीका है, प्यार से उनका स्वागत करना। ऐसे लोग शायद शर्मीले हों और दूसरों से घुलने-मिलने से झिझकते हों। हो सकता है उनकी संस्कृति या समाज में उनकी हैसियत की वजह से वे खुद को दूसरे देश या दूसरी जाति के लोगों से कमतर समझें। ऐसे में हमें पहल करनी चाहिए। उनसे प्यार से मिलना चाहिए और उनमें सच्ची दिलचस्पी लेनी चाहिए। अगर आपकी भाषा में जेडब्ल्यू लैंग्वेज एप है तो उसकी मदद से आप उनकी भाषा में नमस्ते कहना सीख सकते हैं।—फिलिप्पियों 2:3, 4 पढ़िए।

14 मगर हो सकता है आपको दूसरी संस्कृति के लोगों से बात करना अजीब लगे। इस भावना पर काबू पाने के लिए आप उन्हें खुद के बारे में कुछ बता सकते हैं। तब आपको यह जानकर हैरानी होगी कि आपमें और उनमें बहुत-सी समानताएँ हैं। याद रखिए, हर संस्कृति की अपनी ही खूबियाँ और कमज़ोरियाँ होती हैं।

प्यार और अपनापन दिखाइए

15. क्या बात हमें उन लोगों को समझने में मदद देगी जो खुद को एक नए देश में ढालने की कोशिश कर रहे हैं?

15 अगर आप चाहते हैं कि दूसरे देश या दूसरी जगह से आए लोग आपकी मंडली में अपनापन महसूस करें तो आप क्या कर सकते हैं? खुद को उनकी जगह रखिए और पूछिए, ‘अगर मैं किसी दूसरे देश में होता तो मैं क्या चाहता कि लोग मेरे साथ कैसे पेश आएँ?’ (मत्ती 7:12) विदेशी लोग खुद को एक नए देश में ढालने की कोशिश करते हैं, इसलिए उनके साथ सब्र से पेश आइए। वे जिस तरह सोचते हैं या पेश आते हैं, वह शायद हमें शुरू-शुरू में समझ न आए। लेकिन उनसे यह उम्मीद करने के बजाय कि वे हमारी संस्कृति के लोगों की तरह सोचें या पेश आएँ, क्यों न हम उन्हें वैसे ही अपनाएँ जैसे वे हैं?—रोमियों 15:7 पढ़िए।

16, 17. (क) दूसरी संस्कृति के भाई-बहनों के करीब आने के लिए हम क्या कर सकते हैं? (ख) हमारी मंडली के विदेशी भाई-बहनों की हम किस तरह मदद कर सकते हैं?

16 अगर हम विदेशी लोगों के देश और संस्कृति के बारे में जानने में वक्‍त बिताएँ तो उन्हें समझना हमारे लिए आसान हो सकता है। हम पारिवारिक उपासना के दौरान अपनी मंडली या अपने इलाके के विदेशी लोगों की संस्कृति के बारे में खोजबीन कर सकते हैं। विदेशी भाई-बहनों के करीब आने का एक और तरीका है, उन्हें घर पर खाने के लिए बुलाना। जब यहोवा ने राष्ट्रों के लिए “विश्वास का द्वार खोल दिया है” तो क्या हमें ऐसे अजनबियों के लिए अपने घर के दरवाज़े नहीं खोलने चाहिए “जो विश्वास में हमारे भाई-बहन हैं”?—प्रेषि. 14:27, फुटनोट; गला. 6:10; अय्यू. 31:32.

क्या हम विदेश से आए लोगों की मेहमान-नवाज़ी करते हैं? (पैराग्राफ 16, 17 देखिए)

17 विदेश से आए परिवारों के साथ समय बिताने से हम यह बात और भी अच्छी तरह समझ पाएँगे कि वे हमारी संस्कृति में खुद को ढालने के लिए कितनी मेहनत कर रहे हैं। हमें शायद पता चले कि उन्हें भाषा सीखने में मदद चाहिए। ऐसे में हम उनकी मदद कर सकते हैं। हम उन्हें इलाके की ऐसी एजंसियों के बारे में भी बता सकते हैं जो उन्हें एक अच्छा घर या एक अच्छी नौकरी ढूँढ़ने में मदद कर सकती हैं। इस तरह पहल करने से हम अपने साथी मसीहियों की बहुत मदद कर सकते हैं।—नीति. 3:27.

18. विदेशी लोग किसकी मिसाल पर चलकर अच्छा रवैया दिखा सकते हैं?

18 दूसरी तरफ, विदेशी लोगों को भी नए देश की संस्कृति में खुद को ढालने में मेहनत करने की ज़रूरत है। इस मामले में रूत एक बढ़िया मिसाल है। सबसे पहले, उसने नए देश के दस्तूरों के लिए आदर दिखाया। कैसे? उसने बालें बीनने की इजाज़त माँगी। (रूत 2:7) उसने यह नहीं सोचा कि बालें बीनना उसका हक है, इसलिए वह बिना पूछे कहीं पर भी बीन सकती है। दूसरा, उस पर जो कृपा की गयी उसके लिए उसने फौरन धन्यवाद कहा। (रूत 2:13) उसी तरह, अगर विदेशी लोग अच्छा रवैया दिखाएँ तो इलाके के लोग और मसीही भाई-बहन उनका आदर कर पाएँगे।

19. अजनबियों का स्वागत करने की हमारे पास क्या वजह हैं?

19 हमें बहुत खुशी है कि यहोवा ने सभी लोगों पर महा-कृपा की है और उन्हें खुशखबरी सुनने का मौका दिया है। कुछ लोगों को शायद अपने देश में बाइबल अध्ययन करने का या यहोवा के लोगों की सभाओं में जाने का मौका न मिला हो। मगर अब उनके पास यह मौका है कि वे हमसे मिलें। इसलिए हमें उनकी मदद करनी चाहिए ताकि हमारे बीच रहकर वे खुद को अजनबी महसूस न करें। हो सकता है हम पैसों से या किसी और तरीके से उनकी ज़्यादा मदद न कर पाएँ। फिर भी हम उन पर कृपा कर सकते हैं और ऐसा करके हम यहोवा के जैसा प्यार ज़ाहिर कर रहे होते हैं। आइए हम ‘परमेश्वर की मिसाल पर चलें’ और अजनबियों का स्वागत करने में अपना भरसक करते रहें!—इफि. 5:1, 2.

^ [1] (पैराग्राफ 1) नाम बदल दिया गया है।