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आखिर किस लिए जीऊँ?
अगर आप दिव्या * से मिलें तो आपको लगेगा कि वह बहुत होशियार, सबसे घुल-मिलकर रहनेवाली, एक दोस्ताना स्वभाव की लड़की है। मगर इस खिल-खिलाते चेहरे के पीछे एक गहरी उदासी छिपी है, जिस वजह से उसे ज़िंदगी बोझ लगने लगी है। कभी-कभी यह उदासी उसे कई दिनों, हफ्तों या महीनों घेरे रहती है। वह कहती है: “ऐसा एक भी दिन नहीं जाता, जब मैं मरने के बारे में न सोचूँ। मुझे लगता है यह दुनिया मेरे बगैर ज़्यादा खुश रहेगी!”
‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एन.सी.आर.बी.) के मुताबिक भारत में 2012 में 1,35,445 खुदकुशी के मामले दर्ज़ किए गए। औसतन हर घंटे 15 लोग और हर दिन 371 लोग खुदकुशी करते हैं . . . इनमें 242 आदमी और 129 औरतें होती हैं।’—हिंदू समाचार पत्र, भारत।
दिव्या कहती है, वह कभी खुद अपनी जान नहीं लेगी। फिर भी कभी-कभी उसे लगता है, आखिर मैं किस लिए जी रही हूँ। वह कहती है: “काश! किसी दुर्घटना में मेरी मौत हो जाए। मैं मौत को दुश्मन नहीं, दोस्त समझने लगी हूँ।”
शायद ऐसे बहुत-से लोग होंगे जो दिव्या की तरह महसूस करते हैं। इनमें से कइयों ने तो खुदकुशी करने की सोची है, यहाँ तक कि कोशिश भी की है। जानकार बताते हैं कि जो लोग खुद को मारने की कोशिश करते हैं वे दरअसल अपनी ज़िंदगी से नहीं, अपनी तकलीफों से छुटकारा पाना चाहते हैं। सीधे-सीधे कहें तो उन्हें लगता है, उनके पास मरने की वजह तो है पर जीने की नहीं।
आखिर किस लिए जीऊँ? ऐसी तीन वजहों पर गौर कीजिए जो जीने का बढ़ावा देती हैं।
^ पैरा. 3 नाम बदल दिया गया है।